नल हाइपोथिसिस या शून्य परिकल्पना क्या है?

नल हाइपोथिसिस या शून्य परिकल्पना क्या है? टाइप 1 व टाइप 2 एरर क्या है?



शून्य परिकल्पना (null hypothesis) को जाने से पहले हमें जानना होगा की परिकल्पना (hypothesis) किसे कहते हैं?


जब हम किसी विषय पर शोध अथवा अनुसंधान करते हैं तो हमें कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है ताकि हम उस शोध अथवा अनुसंधान के सभी तथ्यों की जांच परख कर उन तथ्यों को सत्य प्रमाणित कर सकें और सत्य प्रमाणित करने के लिए हमारे पास पर्याप्त सबूतों/प्रमाणों का होना आवश्यक है जिसके आधार पर हम किसी शोध को तथ्यात्मक रूप से सत्य प्रमाणित कर पाएं। किंतु कम सबूतों/प्रमाणों के आधार पर हम किसी विषय पर अपने विचार व्यक्त करके कल्पनिक तथ्यों को शामिल करते हैं तो यह उस शोध से संबंधित परिकल्पना कहलाती है।



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सीधे शब्दों में कहें तो किसी अनुसंधान में कम अथवा सीमित प्रमाणों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले विचार अथवा लगाए जाने वाले अनुमानों को हम परिकल्पना कहते हैं।

निर्देशन एवं परामर्श हल प्रश्न पत्र 2020

परिकल्पना के प्रकार

1 वैकल्पिक परिकल्पना
2 शून्य परिकल्पना

वैकल्पिक परिकल्पना (alternate hypothesis) 'अल्टरनेट हाइपोथेसिस' किसे कहते हैं?

जब किसी शोध में अपनी परिकल्पनाओं के आधार पर शोध से संबंधित दो या दो से अधिक चरों के बीच किसी संबंध होने की कल्पना की जाती हैं तो यह कल्पना, वैकल्पिक परिकल्पना (alternate hypothesis) 'अल्टरनेट हाइपोथेसिस' कहलाती है।

उदाहरण के लिए: यदि किसी खोज में 3चर, A, B, तथा C मौजूद है जिसमें हमने उस खोज के दौरान ऐसा अनुभव कर अनुमान लगाया की वस्तु A का संबंध वस्तु B से है और इन दोनों का संबंध किसी अन्य वस्तु C से है। हमारे द्वारा लगाया गया यह अनुमान कि यह तीनों आपस में संबंध रखते हैं यही वैकल्पिक परिकल्पना कहलाती है। इसे हम H1 से प्रदर्शित करते हैं।

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शून्य परिकल्पना (null hypothesis) किसे कहते हैं?

शून्य परिकल्पना, वैकल्पिक परिकल्पना की प्रतिलोम है जिसमें हम यह कल्पना करते हैं कि दो या दो से अधिक चरों के बीच आपस में कोई भी संबंध नहीं है। इसी को हम शून्य परिकल्पना कहते हैं। इसे H0 से प्रदर्शित किया जाता है।

उदाहरण के लिए : हम उपरोक्त वैकल्पिक परिकल्पना के उदाहरण से समझते हैं कि जैसा उपरोक्त उदाहरण में कल्पना की गई है कि तीनों चारों में आपस में कोई संबंध है किंतु यदि हम यह कल्पना करते हैं कि इन तीनों चरणों में कोई भी संबंध नहीं है यह आपस में पूर्ण रुप से स्वतंत्र हैं तो यह परिकल्पना शून्य परिकल्पना कहलाती है। इसके पश्चात हम इनके प्रत्येक पहलू पर शोध करते हैं और किसी परिणाम तक पहुंचते हैं।

हमें वैकल्पिक परिकल्पना एवं शून्य परिकल्पना की आवश्यकता क्यों पड़ती है?

किसी भी शोध के दौरान उस शोध के दो या दो से अधिक चरों में हम पहले यह खोजने की कोशिश करते हैं कि इनका आपस में यदि कोई संबंध है तो वह किस-किस प्रकार है और अंततः हम अपनी खोज द्वारा उसके परिणाम तक पहुंचते हैं और साथ ही साथ हम उस शोध में शामिल दो या दो से अधिक चरों के बीच हम यह कल्पना करते हैं कि इनमें आपस में कोई भी संबंध नहीं है प्रत्येक चर अपने आप में स्वतंत्र हैं तब हम इन सभी चरों के अलग-अलग पहलुओं की खोज करके किसी परिणाम तक पहुंचते हैं। इन दोनों परिकल्पना ओं के आधार पर हम अपनी खोज को पूरा करते हैं इसलिए यह दोनों परिकल्पनाएं शोध में बहुत ही आवश्यक है। किंतु शोध में केवल शून्य परिकल्पना का ही परीक्षण किया जाता है क्योंकि यह स्थिर परिकल्पना होती है इसमें हमें केवल दो या दो से अधिक चरों के बीच परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध करना होता है कि इन दो या दो से अधिक चरों में कोई भी संबंध नहीं है तो यह आसान प्रक्रिया होती है। इसलिए शोध में सबसे अधिक शून्य परिकल्पना का ही परीक्षण किया जाता है।

टाइप 1 (type-1error ) एवं टाइप 2 (type-2 error) एरर क्या है?

टाइप 1 (type-1error ): 

किसी शोध में शून्य परिकल्पना सही हो अर्थात शोध में शामिल दो या दो से अधिक चरों के बीच कोई संबंध नहीं हो किंतु यदि हम किसी कारणवश शून्य परिकल्पना को रद्द कर दें तो यह टाइप-1 एरर कहलाता है। क्योंकि यह बहुत बड़ी गलती होती है इसलिए इसे सबसे पहले रखा गया है।

टाइप 2 (type-2error ):

किसी शोध में शून्य परिकल्पना गलत हो अर्थात शोध शामिल दो या दो से अधिक चरों के बीच कोई संबंध हो किंतु यह हम शोध में नहीं खोज पाए जिसके आधार पर हमने यह मान लिया कि शून्य परिकल्पना ही सही है तो यह टाइप-2 एरर कहलाता है।

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